दिल्ली। गुरुवार को लोकसभा में तीन तलाक बिल पास हो गया। समाज में व्याप्त किसी भी कुरीतियों को खत्म करने के लिए सभी लोगों को सामने आना चाहिए। कोई कुप्रथा या कुरीति अगर धर्म या परंपरा के नाम पर चल रही हो, जो लोगों के जीवन पर कुप्रभाव डाल रही हो तो उसे समाप्त करना हम सबका दायित्व है। देश ने बहुत ही समझदारी से सती प्रथा, बाल विवाह जैसी कुरीतियों का अंत किया।
मुस्लिमों में तीन तलाक की प्रथा ‘तलाक ए बिद्दत’ ऐसी ही कुप्रथा है जिसका शिकार महिलाएं हैं। धर्म के नाम पर जारी तीन तलाक प्रथा मुस्लिम महिलाओं पर आजीवन तलवार की तरह लटकती रहती है। सरकार ने तीसरी बार तीन तलाक बिल लोकसभा में पेश किया है। इससे पहले यह बिल दो बार सदन के पटल पर रखा गया, लेकिन कांग्रेस के असहयोग के चलते पास नहीं हो सका।
देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2017 में एक बार में तीन तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) की 1400 साल पुरानी प्रथा को असंवैधानिक करार दिया था और सरकार से कानून बनाने को कहा था। सरकार ने दिसंबर 2017 में लोकसभा से मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) विधेयक पारित कराया, लेकिन राज्यसभा में बिल अटक गया।
2018 में अगस्त में भी यह विधेयक फिर लोकसभा से पारित हुआ लेकिन राज्यसभा में अटक गया। दोनों ही बार कांग्रेस ने अपनी राजनीति के चलते राज्यसभा में इस बिल को अटकाया। इसके बाद सरकार को शीर्ष अदालत के आदेश की पालना के लिए सितंबर में अध्यादेश लेकर आना पड़ा। चूंकि अध्यादेश की अवधि छह माह की होती है और इस अवधि में अगर संसद का सत्र आहूत हो तो इसे बिल लाकर पास कराना होता है।
सरकार कांग्रेस समेत सभी विपक्ष के संशोधन को ध्यान में रखते हुए संशोधित तीन तलाक बिल सदन में लेकर आई है, जिस पर बहस चल रही है। इस बहस के दौरान सदन में कांग्रेस का असहयोगात्मक चेहरा फिर से देश देख रहा है। कांग्रेस अगर चाहती तो 30 साल पहले इस बिल को पास करा सकती थी, जब उसके पास प्रचंड बहुमत था। लेकिन कांग्रेस हमेशा अल्पसंख्यकों की तुष्टिकरण की राजनीति करती रही है, इसलिए मुस्लिमों में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने पर उसका ध्यान नहीं रहा है। प्रख्यात समाजवादी मधु दंडवते भी चाहते थे कि देश से तलाक ए बिद्दत प्रथा खत्म हो और उन्होंने संसद में खड़े होकर इसके खिलाफ कानून लाने की अपील की थी।
इसके बावजूद कांग्रेस सरकार ने कभी जहमत नहीं उठाई। अब जबकि संसद को फिर से इस बिल को पास कराने का अवसर आया है तो, संसद को मुस्लिम महिलाओं की व्यथा व पीड़ा को ध्यान में रखते हुए सभी सांसदों को इसको पास करना चाहिए। तलाक ए बिद्दत में हलाला प्रथा एक महिला के आत्मसम्मान को घायल करती है।
इस घिनौनी प्रथा के अंत के बारे में सबको सोचना चाहिए। निश्चित रूप से यह विधेयक किसी धर्म व मजहब के खिलाफ नहीं है, बल्कि यह अमानवीयता के खिलाफ है, महिलाओं के शोषण के खिलाफ है। यह बिल कुरान व शरीया के खिलाफ भी नहीं है, ऐसा होता तो पाकिस्तान समेत 20 से अधिक इस्लामिक देश इस कुप्रथा को खत्म नहीं करते।
धर्म में भी अगर कोई गलत प्रथा चलित हो जाय, तो उसमें भी सुधार की गुजाइश होनी चाहिए। एक धर्मनिरपेक्ष देश होने के नाते भारत में सबके अधिकारों की सुरक्षा करना संविधान व संसद का दायित्व है। भारत में कोई भी धार्मिक कानून मान्य नहीं हो सकता।
तलाक ए बिद्दत से मुस्लिम महिलाओं को आजादी दिलाना जरूरी है, यही सरकार कर रही है, इसमें कांग्रेस समेत विपक्ष को भी सहयोग करना चाहिए। सामाजिक सुधार की दिशा में उठे किसी भी कदम पर राजनीति नहीं होनी चाहिए, बल्कि इसका स्वागत होना चाहिए।
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