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26/11 मुंबई हमले के दस साल बाद




 मुंबई। क्या आपको याद है कि आज मुंबई हमले की 10वीं बरसी है? अगर नहीं, तो कृपया एक पल को ठहरें और सोचें कि हम हिन्दुस्तानी जिस तरह बड़ी से बड़ी आपदा-विपदा को बिसरा देते हैं, उससे सिर्फ हमारा नुकसान होता है। सिकंदर से आज तक जितने आक्रांता आए, उनकी सफलताएं उनके रण-कौशल से कहीं ज्यादा हमारी इस कुटेव की उपज थीं।
यह ठीक है कि गुजरे 10 सालों में देश के किसी हिस्से पर मुंबई जैसा हौलनाक हमला फिर नहीं हुआ, मगर दहशतगर्दों की रक्त-पिपासा से देश का कोई हिस्सा अछूता भी नहीं रहा। इस दौरान उन्होंने सेना की छावनियों, वायु सेना बेस, धार्मिक स्थलों, तीर्थयात्रियों और अदालत तक को नहीं बख्शा। पिछले हफ्ते अमृतसर के पास निरंकारी सत्संग पर हमला बोल उन्होंने एक बार फिर हमारी राष्ट्रीय अस्मिता को चुनौती दी है। क्या यह शर्मनाक नहीं कि हम कश्मीर की समस्या तो हल नहीं कर पाए, उल्टे पंजाब में पुन: आतंकवाद की चिनगारियां फूटती देख रहे हैं?
निरंकारी भवन पर आतंकवादी आक्रमण के बाद सभी पार्टियों के प्रवक्ता पाकिस्तान ग्रंथि पर अपनी रटी-रटाई रवायतों के साथ हाजिर हैं, मगर ठोस हल सिरे से लापता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि पाकिस्तान की एजेंसियां भारत में अव्यवस्था फैलाए रखना चाहती हैं। यह भी सच है कि पड़ोसी मुल्क की समूची राजनीति सिर्फ भारत विरोध पर टिकी हुई है। हाल इतना बेहाल है कि वहां चुनाव तक कश्मीर के मुद्दे पर लड़े और लड़ाए जाते हैं। सवाल उठता है, सियासी संगठनों और सुरक्षा एजेंसियों के इस नापाक पाकिस्तानी गठजोड़ से कैसे जूझा जाए?
हमारे यहां के बड़बोलों के पास इस व्याधि का रामबाण इलाज है। वे शेखी बघारते हैं कि पाक पर हमला कर उसके इरादों को सदा-सर्वदा के लिए जमींदोज कर दिया जाए। यह बात सुनने में जितनी अच्छी लगती है, दरअसल उतनी प्रभावी नहीं है। कश्मीर के कबाइली हमले से कारगिल तक का इतिहास गवाह है कि पड़ोसी ने जब भी हमला किया, उसे मुंह की खानी पड़ी। 1971 में तो इंदिरा गांधी ने उसे दो टुकड़ों में ही बांट दिया था, पर नतीजा क्या निकला? पाक ने समझ लिया, हम सीधी लड़ाई में हिन्दुस्तान को नहीं हरा सकते। पिछले चार दशक से वह ‘छद्म युद्ध’ के सहारे हमारा खून बहा रहा है। हमारे हमलावर हमेशा से ऐसा करते आए हैं।
समझदार कहा करते हैं कि मैदानी जंग तो सिर्फ बहाना होती है। असल हार-जीत का फैसला तो टेबल पर आमने-सामने बैठकर किया जाता है। हर युद्ध के बाद अगर सुलह-सफाई करनी ही है, तो क्यों न पहले ही कर ली जाए? ऐसा नहीं है कि भारतीय प्रधानमंत्रियों ने इससे कोई संकोच किया है। जवाहरलाल नेहरू से नरेंद्र मोदी तक तमाम भलमनसाहत भरी कोशिशें हुईं, पर वे भी खेत रहीं। अब अकेला उपाय बचता है कि पाकिस्तान को कूटनीतिक रूप से अलग-थलग कर दिया जाए। विश्व बिरादरी को समझाया जाए कि हम पड़ोसी नहीं बदल सकते, पर बराए मेहरबानी उसका नजरिया बदलने में हमारी मदद करें। 26/11 के बाद की घटनाएं साक्षी हैं कि 10 वर्षों में कांग्रेस और भाजपा, दोनों की हुकूमतें इस मकसद में कामयाबी नहीं हासिल कर सकीं। तय है, रास्ता लंबा है और हमारे कूटनीतिज्ञों को अभी बहुत प्रयास करने बाकी हैं, पर इस दौरान क्या हम अपनी आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था को चुस्त-दुरुस्त नहीं कर सकते थे? इस मोरचे पर इतनी बेबसी क्यों है?
याद करें, आतंकवाद से लड़ने के लिए बड़े जोर-शोर से एनआईए यानी राष्ट्रीय जांच एजेंसी का गठन किया गया था। माना गया था कि यह त्वरित कार्रवाई करेगी। इसके जरिए हम न केवल पुरानी आतंकवादी घटनाओं की समीक्षा कर सकेंगे, बल्कि आगे के लिए सार्थक रणनीति भी बना सकेंगे। दुर्भाग्यवश, एनआईए को भी सरकारी तोता बना दिया गया। भरोसा न हो, तो मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस हमलों की कार्रवाई का हश्र देख लें। सवाल उठना लाजिमी है कि नई दिल्ली की हुकूमत में बदलाव के साथ इस एजेंसी का रुख कैसे बदल गया? क्या वह पहले सियासी दबाव का शिकार थी या आज ऐसा है? उत्तर चाहे जो हो, पर परिणाम समान रूप से विनाशकारी है।
ऊपर से सितम यह कि हिन्दुस्तानी सुरक्षा एजेंसियों के बीच भी तालमेल की बेहद कमी है। एक उदाहरण। पठानकोट स्थित वायु सेना अड्डे पर हमले के दौरान एक सनसनीखेज खुलासा हुआ था। गुरदासपुर के पुलिस अधीक्षक सलविंदर सिंह ने दावा किया था कि मुझे उन्हीं आतंकवादियों ने पकड़ लिया था, जिन्होंने बाद में इस हरकत को अंजाम दिया। जांचकर्ताओं ने सलविंदर सिंह का बयान संदिग्ध पाया, पर उनके द्वारा दी गई हमले की चेतावनी अनसुनी क्यों कर दी गई? यही नहीं, ऑपरेशन के दौरान जिस तरह राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड और वायु सेना के गरुड़ कमांडो के बीच तालमेल की कमी की खबरें आईं, वे डराती हैं।
भारत एक विशाल देश है। यहां दिल्ली और सूबाई राजधानियों में अक्सर अलग-अलग विचारधाराओं की सरकारें बनती हैं। 

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