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पीएम मोदी के कार्यकाल की सबसे बड़ी मुश्किल 18 फरवरी को आएगी




दिल्ली। देश के और सभी प्रधानमंत्रियों की तरह नरेंद्र मोदी भी जब प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने अपने मन मुताबिक कुछ फैसले किए. हर प्रधानमंत्री की तरह उन्हें भी समर्थन और विरोध झेलना पड़ा. हालिया सबसे बड़े फैसलों जैसे नोटबंदी और जीएसटी के बाद उनके समर्थन और विरोध का दौर जारी है. चुनाव में जीत के साथ ही विरोध की आवाज थोड़ी धीमी होती है और समर्थन की आवाज तेज हो जाती है. फिर अगला चुनाव आता है और फिर से यही प्रक्रिया दुहराई जाती है.
नरेंद्र मोदी कोई पहले ऐसे प्रधानमंत्री नहीं हैं, जो इन मुसीबतों से दो चार हो रहे हैं. हर नेता के साथ यही होता रहा है. चाहे वो इंदिरा गांधी के बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मसला हो, नरसिम्हा राव के मुक्त अर्थव्यवस्था का मसला हो या फिर मनमोहन सिंह का अमेरिका के साथ परमाणु करार का, चुनाव के दौरान विरोध बढ़ता ही रहा है. अगर चुनाव जीत गए तो आवाज दब जाती है और अगर हार गए तो इस आवाज को और भी बल मिलता है. कुछ ऐसी ही स्थिति आंदोलनों की भी होती है. कई ऐसे आंदोलन होते हैं, जो सरकारों को घुटने टेकने पर मजबूर कर देते हैं. वहीं कुछ आंदोलन मौसमी होते हैं. चुनावी मौसम में सिर उठाते हैं और चुनाव बीतने के साथ ही गायब हो जाते हैं.
हाल के दिनों पर नज़र डालें तो देश में तीन ऐसे बड़े आंदोलन हुए हैं, जिन्होंने केंद्र सरकार के साथ ही राज्य सरकारों के माथे पर बल ला दिया था.
1.जाट आरक्षण आंदोलन"
ये आंदोलन फरवरी 2016 में शुरू हुआ था, जिसने पूरे उत्तर भारत को प्रभावित किया था. जाट समुदाय के लोग खुद के लिए आरक्षण मांग रहे थे और इसके लिए वो सड़कों पर आकर हिंसा करने से भी बाज नहीं आए. 10 दिनों तक उत्तरी भारत और खास तौर पर हरियाणा में बंधक जैसी स्थिति बनी रही. दिल्ली, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति रही. हिंसा के खत्म होने तक तकरीबन 30 लोग मारे गए थे. पूरे आंदोलन के दौरान 100 करोड़ रुपये से भी ज्यादा की सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया था. आंदोलन के दौरान राज्य सरकारों और खास तौर पर हरियाणा में खट्टर सरकार की खासी किरकिरी हुई थी. केंद्र सरकार ने भी मांगे मानने का भरोसा दिलाया था. कहा था कि इस आंदोलन के दौरान जिनपर भी केस दर्ज किए गए हैं, वो केस वापस ले लिए जाएंगे. इसके बाद आंदोलन शांत पड़ गया था.
2.पटेल आंदोलन"
ये आंदोलन जुलाई 2015 में गुजरात से शुरू हुआ था. युवा पाटीदार नेता हार्दिक पटेल के नेतृत्व में शुरू हुए इस आंदोलन के दौरान पाटीदार खुद को ओबीसी में शामिल करने और खुद के लिए आरक्षण की मांग कर रहे थे. आरक्षण की मांग को लेकर 22 जुलाई को गुजरात के मेहसाणा में बड़ी रैली आयोजित की गई. 23 जुलाई को आंदोलन हिंसक हो गया. तकरीबन 40 दिनों तक पूरे गुजरात के अलग-अलग शहरों में आंदोलन हुआ, जिसमें कई जगहों पर हिंसा हुई. आंदोलन के दौरान अलग-अलग जगहों पर हिंसा हुई, जिसमें 10 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई. हजारों करोड़ रुपये की सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया और पूरा गुजरात हिंसा की आग में जलता रहा. इस पाटीदार आंदोलन को संभालने में गुजरात सरकार पूरी तरह से नाकाम रही. नतीजा ये हुआ कि मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को इस्तीफा देना पड़ा और फिर विजय रूपाणी गुजरात के मुख्यमंत्री बने. इस आंदोलन का ही नतीजा था कि आंदोलन के नेता हार्दिक पटेल ने चुनाव में कांग्रेस का समर्थन कर दिया था, जिसकी वजह से 22 साल से सत्ता में रही बीजेपी की सीटें 100 से नीचे आ गईं.
3. मराठा आंदोलन"
ये आंदोलन जुलाई 2016 में शुरू हुआ था. आंदोलन के पीछे एक बच्ची से बलात्कार का मामला था. 13-14 जुलाई 2016 को एक बच्ची की रेप के बाद हत्या कर दी गई थी. बच्ची मराठा समुदाय से ताल्लुक रखती थी. इसलिए इस रेप और हत्याकांड के विरोध में लाखों लोग सड़कों पर मौन प्रदर्शन करने के लिए उतर गए. इनकी मांग रेप और हत्या के दोषियों को फांसी दिलाने की थी. पूरे महाराष्ट्र में ये प्रदर्शन शुरू हो गए. जब एक मुद्दे पर ही लाखों लोगों की सहमति बन गई तो फिर मराठा आंदोलन की मांगों में भी इजाफा हुआ. इनकी मांग थी कि मराठा छात्रों को शिक्षण संस्थाओं और नौकरियों में आरक्षण दिया जाए. इसके अलावा मराठों में किसानों की तादाद सबसे ज्यादा है. ऐसे में इनकी मांग स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को लागू करने की भी थी. ये आंदोलन भले ही हिंसक नहीं हुआ था, लेकिन इसने देवेंद्र फडणवीस सरकार के माथे पर पसीना ला दिया था. वजह भी थी. महाराष्ट्र में मराठा आबादी 30% से ऊपर है, जो बेहद प्रभावी है. इसने राज्य को 18 में से 13 सीएम दिए हैं.
ये तीन आंदोलन खुद में बहुत बड़े थे. इन्हें संभालने के लिए प्रदेश सरकारों के साथ ही केंद्र सरकार के भी पसीने छूट गए थे. उस वक्

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